Monday, April 3, 2023

कॉमरेड मोनी गुहा - कॉमरेड गोपाल द्वारा शोक संदेश (Obituary)



में इसे स्वीकार करने में कोई गुरेज नही है कि आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष के एक चरण का वर्णन करने के लिए मोनी गुहा या एमजी का नाम लेना ही काफी है और इनके लिये किसी औपचारिक परिचय की आवश्यकता नहीं है। हालांकि कुछ लोग उनके नाम के साथ स्टालिनवादी लेवल लगाना पसंद करते है, मानो किसी नाम को लेवल लगा देने से उस अध्याय का बंद होना  तय हो जाता हो। यह किसी भी समस्या में अपने सिर को कुरेदने से बचने के लिए केवल एक निम्न बुर्जुआ प्रयास है और कम्युनिस्ट आन्दोलन के अंदर खासकर 20वीं कांग्रेस के बाद ऐसी कई रुझाने और प्रवृत्तियाँ देखने को मिल सकती हैं। उदाहरण के लिए केवल मेहनतकश जनता के साथ-साथ रैंक और फाइलों के भीतर स्वीकृति प्राप्त करने के लिए कुछ नेताओं ने खुद या कुछ नेताओं के अनुयायियों ने खुद को अमुक स्टैंड या नारे के अग्रणी के रूप में दावा किया। यहां तक कि तथ्यों और आंकड़ों और उनकी ऐतिहासिक भूमिकाओं को भी तोड़-मरोड़ कर पेश किया। लेकिन कोई भी इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकता है कि CPSU [B] की 20 वीं कांग्रेस के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी (आयरिश) के नील गोल्ड और CPI के MG ने, स्पष्ट रूप से बिना किसी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन के,  यह घोषणा करते हुए आवाज उठाई कि यह एक संशोधनवादी  कांग्रेस है।


इस प्रकार स्टालिन द्वारा तथाकथित 'पोषित' व्यक्तित्व पंथ के विरोध की आड़ में, ख्रुश्चेववादी संशोधनवाद - हम इसे दक्षिणपंथी विचलन का नाम दे सकते हैं - ने सर्वसम्मति से ठोस आधार पर पैर जमा लिया।


लेकिन कुछ ही वर्षो में सोवियत संघ और चीन के बीच राष्ट्रीय संघर्ष के परिणामस्वरूप हमने फिर से ख्रुश्चेववादी संशोधनवाद के विरोध के रूप में माओवादी संशोधनवाद को अति वामपंथी भटकाव के रूप में पाया और समूचा अंतरराष्ट्रीय आंदोलन बिखर गया।


यद्यपि हमारे पास घटनाओं के विकास की एक विस्तृत तस्वीर पेश करने का कोई अवसर नहीं है, हम एम.जी. द्वारा संशोधनवाद के खिलाफ संशोधनवाद का उल्लेख करने की अनुमति लेते हैं और इस संबंध में हमें आधुनिक संशोधनवाद के जनक के रूप में टीटो की भूमिका का उल्लेख करना चाहिए जो दुनिया भर के सभी श्रमिकों के सपनों की भूमि, सोवियत राज्य के सामने सैद्धांतिक रूप से राष्ट्रीय हित का दावा करता है। 


आधुनिक संशोधनवाद की समझ बनाने को महत्वपूर्ण कार्य मानते हुए एमजी ने युगोस्लाव प्रश्न और सीपीसी और सीपीएसयू की भूमिका का विस्तार से विश्लेषण किया।


अंत में उनकी "20वीं कांग्रेस और स्टालिन" ने उस प्लेटफॉर्म को पूरा किया जहां से आधुनिक संशोधनवाद के खिलाफ लड़ाई अचूक लक्ष्य के साथ शुरू किया जा सकता था।


आधुनिक संशोधनवाद के दोनों रूपों का आर्थिक आधार अन्तर्राष्ट्रीयवाद का खंडन करने वाला राष्ट्रीय विचलन है जो आज तक पूँजीवाद के उच्चतम स्तर, साम्राज्यवाद से भी लड़ने का मूलमंत्र बना हुआ है।


इस परिप्रेक्ष्य में हमें स्तालिन के उस भाषण का हवाला देना चाहिए जिसमें परमाणु बम के विस्फोट के बाद सोवियत कार्यकर्ताओं और नेताओं के अंदर राष्ट्रीय प्रवृत्ति के खतरे का उल्लेख किया गया था, जिसमें जबरदस्त गहराई थी।


और हम कह सकते हैं कि यह संघर्ष स्टालिन की रहस्यमय और अचानक मौत का कारण था क्योंकि उनकी उपस्थिति में आधुनिक संशोधनवाद अंतरराष्ट्रीयतावाद को छोड़कर इतनी मजबूती से पैर नहीं जमा सकता था।


व्यावहारिक रूप से यह प्रवृत्ति फासीवादी शासन के दौरान आकार ले चुकी थी जब नाजी हिटलर ने सभी लोकतांत्रिक अधिकारों और विचारों को कुचलना शुरू कर दिया था और इस प्रकार कम्युनिस्टों का मुख्य कर्तव्य लोकतंत्र के बैनर को बनाए रखना और सभी लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ फासीवादी नरसंहार से लड़ना था।


स्पष्ट रूप से यह हमारे सामने - जो सभी देशों की मेहनतकश जनता और मजदूरों के हित के लिए प्रतिबद्ध हैं और आज समाजवाद के लिए संघर्ष का रास्ता निकालने के लिए प्रतिबद्ध हैं - 

अपने लक्ष्य की ओर रास्ता बनाने के लिए और दुश्मनों द्वारा और यहाँ तक कि निम्न बुर्जुआ मानसिकता वाले मित्र वर्गों द्वारा हमें उनकी परियों की कहानियों और विश्वासघाती योजना से गुमराह करने के लिए, समाजवाद का रास्ता हमारे सपने और कल्पना से भी परे बनाने के लिए और उस अवधि के दौरान -यानी, 1954 से जब ख्रुश्चेव और अन्य द्वारा स्टालिन के लेखन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था- हुए ऐतिहासिक तथ्यों की अज्ञानता से भरा हुआ इतिहास के मिथ्याकरण के ढेर को साफ करने का एक विशाल कार्य है।


 इस संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई  में अंतरराष्ट्रीय संगठन की ताकत और उसकी भूमिका को कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता और कोई भी अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में पूंजी की भूमिका से इनकार नहीं करता है लेकिन एक अंतरराष्ट्रीय संगठन  को एक ठोस मंच के रूप में बनाने की परवाह कौन करता है।


हमें कॉमिन्टर्न (तीसरे अंतर्राष्ट्रीय) के पतन के कारण को खोजने का भार उठाना चाहिए और कॉमिनफॉर्म की विफलता के कारण का पता लगाना चाहिए जिसे स्टालिन ने व्यर्थ स्थापित करने की पूरी कोशिश की।

 हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय बनाने के लिए कुछ पहलें हुईं जिनमें से ब्रसेल्स सेमिनार को दैनिक पत्रों में समाचार के रूप में जगह मिली है और जो केवल अंतरराष्ट्रीय लोगों की परंपराओं का कैरिकेचर बनाकर किसी भी वैचारिक गहराई के दिवालियापन को उजागर करता है और एमजी इस विषय पर खुद को मौन नहीं कर सके।


अपनी वृद्धावस्था संबंधी बीमारियों के बावजूद उन्होंने इस पहल की पूरी तरह से बकवास और प्रतिभागियों की गतिविधियों में हावी अवसरवादिता पर बांग्ला में एक पुस्तिका लिखी।


अंत में अंतरराष्ट्रीय पटल पर और वैचारिक क्षेत्र में मार्क्सवाद की समस्याओं पर उनके कार्यों का उल्लेख करने के लिए हमें सोवियत समाजवादी सत्ता के पतन के बाद लोगों के लोकतंत्र पर उनकी थीसिस का उल्लेख करना चाहिए।


इस थीसिस में उन्होंने सोवियत समाजवादी शक्ति के अभाव में इसकी अप्रासंगिकता पर जोर दिया। इच्छुक पाठक हमारी वेब साइट में मोनी गुहा के इन सभी प्रमुख और महत्वपूर्ण कृतियों को पढ़ सकते हैं।


भारत में व्याप्त समस्याओं के क्षेत्र में उन्होंने पटना के कुछ साथियों के साथ अपनी पत्रिका सर्वहारा पथ की शुरुआत की थी। इसके उद्घाटन अंक में भारत में क्रान्ति की अवस्था के प्रश्न पर बल दिया गया है, समाजवादी क्रान्ति के पक्ष में स्पष्ट रूप से तर्क दिये गये हैं और सिद्धांतकारों के बड़े हिस्से द्वारा प्रस्तुत लोक लोकतंत्र के पक्ष में दिये तर्कों का खंडन किया गया है।


अभी तक हमें कोई ठोस सैद्धांतिक विरोध और आलोचना नहीं मिली है। इसके बजाय हमें मसौदे (ड्राफ्ट) में इस्तेमाल किए गए कुछ आंकड़ों और उद्धरणों पर बेतरतीब ढंग से बिखरे हुए प्रश्न प्राप्त हुए। वे व्यक्तिगत रूप से जबाब देने की स्थिति में नहीं थे क्योंकि पटना के कामरेडों ने पांडुलिपि और सभी प्रासंगिक दस्तावेजों को अपने साथ रखते हुए मसौदा तैयार किया था।


और जैसा कि उन्होंने पटना से कुछ अंक के प्रकाशन के बाद एमजी को अलग-थलग कर दिया, जाहिर तौर पर बिना किसी वैचारिक संघर्ष के, जो कि एक नियमित अभ्यास है और जो हम लगभग हर समूह में पा सकते हैं, हम उन बिखरे और तकनीकी सवालों के जवाब देने के लिए शर्मनाक स्थिति में हैं। और पटना के कामरेडों को जबावदेही निभाने के लिए तैयार करने को कहा जा रहा था तो उन्होंने जवाब दिया कि इनमें कोई गम्भीर प्रयास करने और कोई जवाब देने की जरूरत नहीं है। व्यावहारिक रूप से हमें एक कदम आगे बढ़ने के लिए दो नहीं बल्कि आधा दर्जन कदम पीछे हटना शुरू करना होगा।


अब उनकी यादों को आप सभी के साथ साझा करने के लिए हम उनकी कुछ गतिविधियों को केवल एक ऐसे व्यक्तित्व के रूप में चित्रित करना चाहते हैं जिसने उन्हें हमारे लिए एक आदर्श बना दिया।


सबसे पहले, एक महत्वपूर्ण - अपने जीवन साथी बनाने के संबंध में। उन्होंने अपनी होने वाली पत्नी से खुले तौर पर स्वीकार किया कि वह कभी भी खुद के खर्च के लिए पर्याप्त कमाई करने की स्थिति में नहीं होंगे बल्कि उनके जैसे आदमी की पत्नी होने के नाते उनके परिवार को पुलिस आदि की यातनाएँ झेलनी पड़ सकती हैं। और उनकी पत्नी  ऐसी थी  जिसने सब कुछ स्वीकार किया और अपने पारिवारिक जीवन में 50 से अधिक वर्षों तक 70 के दशक के दौरान पुलिस और कुछ तथाकथित नक्सलियों से मिली यातनाओं के कारण टीबी सहित कई परेशानियों के बावजूद कभी आवाज नहीं उठाई।


यहां तक कि अपने बेटे की बीमारी के संकट काल के दौरान सिर्फ 20वीं कांग्रेस और स्टालिन पर अपनी पुस्तिका प्रकाशित करने के लिए उन्होंने उसकी कमाई का एक हिस्सा ले लिया, जिसे उन्होंने तत्कालीन पार्टी द्वारा आयोजित एक खुली बैठक में खुले तौर पर वितरित किया। ऐसे दुस्साहसिक आचरण के लिए उन्हें मुसीबतों का सामना करना पड़ा था।


समाजवाद के प्रति ख्रुश्चेववादी विश्वासघात के खिलाफ लड़ाई ने उन्हें पार्टी से निष्कासित और अलग-थलग कर दिया और और पैरिटी के तत्कालीन संपादक सत्य गुप्ता सहित चार साथियों को छोड़कर उनके साथ दो साथियों ने ख्रुश्चेव के समर्थन में सरोज आचार्य के लेख के खिलाफ लिखा था।


अन्य दो कामरेड अब्दुल मोमिन और सुशीतल रॉयचौधरी थे और सभी के साथ पार्टी द्वारा वही व्यवहार किया गया।


इसके तुरंत बाद इस्पात के संपादक माओ के इस सवाल पर मंडली में शामिल हो गए और नागी रेड्डी और डीवी राव के सहयोग के साथ एमजी ने अपनी थोड़ी सी ताकत और गुंजाइश के साथ लड़ना शुरू कर दिया।


एमजी ने पीपी के दो अंकों में एक लेख 'माओ सप्लीमेंट्स ख्रुश्चेव' लिखा था जिसमें उस समय आरडी के विजय सिंह शामिल हुए थे। इस प्रकार माओ के वामपंथी विचलन के खिलाफ एक अभियान को लंदन के बिल ब्लैंड के साथ भारत में एक आलोचक मिला।


लेकिन एमजी का रास्ता बिल्कुल भी आसान नहीं था। वे अक्सर अपनी गतिविधियों में कूटनीति से परहेज करते थे और इस तरह उन्हें राजनीति में अपनी स्पष्ट छवि के साथ भुगतान करना पड़ा।


ऐसी ही एक घटना तब घटी जब स्टालिन की आलोचना को एक समूह द्वारा, जिसे ट्रोट्स्की के अनुयायी के रूप में जाना जाता था, अपने स्वयं के पते से पुस्तिकाओं की प्रस्तावित श्रृंखला में प्रकाशित करने के लिए सद्भावना से सहमत हुए थे।


वह उनके इरादे से पूरी तरह अनजान थे और पहले अंक के बाद उक्त समूह ने खुद को उनसे अलग कर लिया जैसे कि केवल वही मुद्दा था जिसके लिए एमजी सहमत हुए थे।


जाहिर तौर पर उन्हें विश्वासघाती कृत्य के खुलासा के लिए कई अवसर मिले, लेकिन उन्होंने कभी भी इस तरह के कई मामलों में रक्षात्मक तर्क अपनाने की कोशिश नहीं की।


जब उनसे इस तरह की चीजों पर लिखने के लिए कहा गया तो वे केवल हंसे और हमसे कहा कि स्थिति की मांग के अनुसार कार्यो को दरकिनार कर मेरी छवि को साफ करना बहुत गंभीर काम नही है।


छोटी उम्र में ही जब वे सातवीं कक्षा के छात्र थे उन्होंने खुद को राजनीति में सक्रिय कर लिया और साइमन वापस जाओ के नारे के साथ छात्रों का नेतृत्व किया और 1930 में उन्हें सलाखों के पीछे ले जाया गया जब वह केवल 16 वर्ष के थे।


व्यावहारिक रूप से उन्होंने कई जेलों के अंदर रहने के दौरान मार्क्सवाद पर एक ठोस ज्ञान के साथ-साथ अपनी शैक्षणिक डिग्री प्राप्त की।


मार्क्सवाद (सैद्धांतिक पहलू पर) पर उनके ज्ञान को पार्टी द्वारा मान्यता दी गई थी और उन्हें एक राजनीतिक शिक्षक के रूप में चुना गया था। जब उन्होंने एक अलग कार्यक्रम प्रस्तुत किया था उसे भी तत्कालीन प्राधिकरण से मान्यता प्राप्त हुई थी। और उस पहचान और लोकप्रियता ने उन्हें एक बार कुछ नक्सलियों द्वारा किए गए हमले से बचाया जब हमलावरों में से एक ने उन्हें अपने शिक्षक के रूप में पहचान लिया था।


एक बार फिर किसी भी परिणाम का सामना करने के उनके निडर रवैये ने उन्हें राजनीतिक मतभेदों के कारण होने वाले हमले से बचा लिया, जो कि कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर प्रचलित एक आम प्रथा है जो इसे एक अति वामपंथी निम्न बुर्जुआ मानसिकता के रूप में प्रकट करती है और जिसका मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है।


इस घटना में वह एक क्लब के साथ अपने घर से बाहर आये और हमलावरों को चुनौती दी कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता किसी भी समय अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार है और वह हमलावरों में से एक ऐसे व्यक्ति से मिलना चाहते हैं जिसे वह अपनी मौत से पहले ही मार डाले।

 

ऐसा निडर रवैया उन्होंने बचपन से अपने संघर्ष में अर्जित किया, जिसके दौरान उन्होंने एक बार एक सफल स्वदेशी डकैती अभियान में उन्हें एक समूह के नेता के रूप में  चयन किया गया था।


अंत में उनकी स्मृति के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हम केवल यह कहना चाहते हैं कि उनकी वृद्धावस्था संबंधी बीमारियों के बावजूद वे इतने उत्साही थे कि उन्होंने सरकार द्वारा स्वतंत्रता सेनानी को दिए जाने वाली सुविधा प्राप्त कर भारत में कई स्थानों का दौरा किया। कई समूहों के साथ उनके स्थान पर और अनुयायियों के बीच विशेष रूप से माओ के सवाल पर विवादात्मक चर्चा की और भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में एक सफल मो लाने के लिए जीने का सपना तबतक देखा जब तक कि उन्होंने दृष्टि और सुनने की शक्ति के साथ-साथ अपनी ताकत खो न दी, जब तक वह व्यावहारिक रूप से असमर्थ न हो गये केवल यह महसूस करते हुए कि वह वास्तव में अपने वास्तविक स्थान- राजनीती से खारिज कर दिये गये थे।


https://gopalcalcutta.blogspot.com/2015/06/comrade-moni-guha-obituary-by-com-gopal.html?m=1


(मोनी गुहा 29 सितम्बर 1914 – 07 अप्रैल 2009)

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