Monday, April 3, 2023

लोक जनवाद : वर्तमान में इसकी अप्रासंगिकता, (इतिहास एवं सिद्धांत) - मोनी गुहा



(1) लोक जनवाद के उद्भव और विकास को ठोस ऐतिहासिक परिस्थितियों के संदर्भ में 'परखा जाना चाहिए ।


(2) 1930 के दशक में फासीवाद के उदय के साथ विश्व क्रांतिकारी आन्दोलन को एक झटका लगा तथा विश्व सर्वहारा को संघर्ष की प्रतिरक्षा नीति अपनानी पड़ी। मानव जाति के लिए एक बड़े खतरे के रूप में फासीवाद उभरकर सामने आया। इतिहास के विकास के रास्ते में यह सबसे बड़ी बाधा बन गया था और इसे नष्ट किए विना मानव जाति का आगे बढ़ना असम्भव था। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष तथा बुर्जुवा जनवाद की रक्षा और पुनर्स्थापना के संघर्ष ने ही मुख्य प्रहार की दिशा तथा अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों क्षेत्रों में वर्ग शक्तियों के तालमेल को निर्धारित किया। उन देशों में भी जहाँ अभी तक समाजवादी क्रांति कार्यसूची पर था बुर्जुवा जनवादी किस्म के कार्य सामने आ गये। ये साम्राज्यवाद विरोधी फासीवाद विरोधी तथा राष्ट्रीय मुक्ति के कार्य थे और इसलिए जनवादी थे।


(3) फासीवाद के प्रभुत्व और उसके प्रभुत्व के खतरे का अर्थ सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में प्रतिगमन होता है, वह क्षेत्र चाहे राजनैतिक हो, सामाजिक या राष्ट्रीय।


राजनैतिक तौर पर, फासीवाद ने उन सीमित जनवादी अधिकारों और स्वातंत्र्य को समाप्त कर दिया जिसने वर्ग संघर्ष का रास्ता खोलने में सर्वहारा को मदद दी थी। सामाजिक तौर पर, फासीवाद के प्रभुत्व का अर्थ था सामंती भूदासता और यहाँ तक कि शोषण के दास रूप की पुनर्स्थापना।


राष्ट्रीय तौर पर, फासीवादी शक्तियों द्वारा राष्ट्रों पर सीधे कब्जा जमा लेने के कारण फासीवादी प्रभुत्व का अर्थ था राष्ट्रीय प्रश्न पर प्रतिगमन। फासीवाद का यह अर्थ था कि इतिहास एक कदम पीछे हटा है तथा मजदूर वर्ग और जनता के लिए जनवादी व्यवस्था, जनवादी अधिकारों और स्वतन्त्रताओं को एक नये आधार पर पुनर्स्थापित करने का बिल्कुल नया विशिष्ट कार्यभार सामने आ गया था।


"हिटलर की पार्टी" स्तालिन कहते हैं, "जनवादी स्वातंत्र्य के दुश्मनों की पार्टी है, मध्ययुगीन प्रतिक्रिया और बलवाई दंगा-फसादों की पार्टी है ।" वे आगे कहते हैं, "जर्मन आक्रमणकारियों ने यूरोपीय महादेश की जनता को फ्रांस से सोवियत बाल्टिक देशों तक, नार्वे, डेनमार्क, बेल्जियम, नीदरलैंड और सोवियत बेलोरूस से लेकर बाल्कन देशों और सोवियत उक्रेन तक गुलाम बनाया है। फासिस्टों ने जनता से उनके बुनियादी जनवादी स्वातंत्र्य को छीन लिया है, उन्हें अपना भविष्य स्वयं निर्धारित करने के हक से वंचित किया है, उनके अनाज, मांस और कच्चे मालों को लूट लिया है; उन्हें गुलाम बना लिया है,......... " (सोवियत संघ के महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के बारे में।) 


(4) स्पेन में फासिस्ट विरोधी जनवादी आन्दोलन के चरमोत्कर्ष पर, फरवरी 1936 में, सभी जनवादी और कम्युनिस्ट पार्टियों की मिली-जुली जनमोर्चा (Popular Front) सरकार सत्ता में आई जिसने नीचे और ऊपर दोनों तरफ से फासिस्ट विरोधी जनवादी क्रांति की शुरुआत की। यह तुरन्त जनवाद और फासीवाद के बीच का अन्तर्राष्ट्रीय वर्ग-संघर्ष बन गया जिसमें मध्यम श्रेणी खासकर मध्यम पूँजीपति वर्ग ने सर्वहारा वर्ग के साथ मिलकर फासिस्ट - विरोधी जनवादी क्रांति में सक्रिय भागीदारी ली। एक ओर समाजवादी सोवियत संघ के अस्तित्व और उसके द्वारा स्पेन की जनवादी क्रांति को पहुँचाई गई मदद और दूसरी ओर कई बुर्जुवा राज्यों में फासीवादी तानाशाही का होना और उनके द्वारा स्पेन के फासिस्टों को दी गयी मदद ने विश्व पैमाने पर वर्ग-शक्तियों के तालमेल को निर्धारित किया और यही वजह थी कि उस समय के स्पेनी राज्य के वर्ग-चरित्र के सवाल को कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल ने दूसरे ढंग से पेश किया। स्पेन की जन मोर्चा सरकार ने फासिस्ट -विरोधी जनवादी क्रांति के जिस सचमुच लोकप्रिय रूप को जन्म दिया, उसे बुर्जुआ और सर्वहारा के बीच के एक वर्गीय जनवाद के सीधे अंतरविरोध के रूप में नहीं देखा जा सकता था। स्पेन में जो सरकार बनी, वह न तो सर्वहारा की सरकार थी और न बुर्जुआ की। अलबत्ता यह दोनों के बीच की एक मध्यवर्ती सरकार थी जिसे नई ऐतिहासिक अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में, जब फासीवाद के विरुद्ध विश्व परिदृश्य को रूप देने में सोवियत संघ और विश्व सर्वहारा की बढ़ती भूमिका एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गयी थी, कम्युनिस्ट इन्टर- नेशनल ने 'लोक जनवाद' या 'नव-जनवाद' की संज्ञा दी थी।


इस प्रकार लोक जनवाद का उद्भव एक मध्यवर्ती अवस्था के रूप में हुआ जिसमें मजदूर वर्ग के नेतृत्व में एक अधिक व्यापक सामाजिक आधार पर, सर्वहारा और किसानों के जनवादी अधिनायकत्व की तरह, कमोवेश शांतिपूर्ण ढंग से बिना किसी रुकावट के सर्वहारा के अधिनायकत्व में संक्रमण को सुगम बनाना था।


(5) फासीवाद-विरोधी देशभक्तिपूर्ण युद्ध के दौरान जर्मन और जापानी आक्रमणकारियों को शिकस्त देते हुए सोवियत संघ ने सारी दुनिया के तमाम जनवादी ताकतों की जबर्दस्त क्रांतिकारी क्षमताओं को मुक्त किया, जिन्हें अब तक दबाया गया था। सोवियत सेना की प्रत्यक्ष मौजूदगी ने आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवाद के नापाक इरादों और प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों द्वारा गृहयुद्ध छेडने की को नाकाम किया। इसके स्वर समाज के राजनैतिक संगठन के रूप में, सभी फासिस्ट विरोधी जनवादी शक्तियों के मिलने से लोक-जनवाद अस्तित्व में आ सका।


(6) अतः फासीवाद-विरोधी संघर्ष और समाजवाद के लिए संघर्ष के बीच की प्रत्यक्ष संयोजक कड़ी के रूप में लोक जनवाद की उत्पत्ति एक ऐसे काल में विश्व इतिहास के विकास का नतीजा था जब समाजवाद की भूमि सोवियत संघ अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति को लगभग निर्णायक ढंग से प्रभावित करने की अपराजेय स्थिति में था, जब राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वर्ग शक्तियों के आपसी सम्बन्ध और तालमेल में निश्चित रूप से समाजवाद का पलड़ा भारी हो गया था, जब पूँजीवाद का आम संकट अपने पराकाष्ठा पर थी और पूँजीवाद को पतन के कगार पर ला दी थी, जब मध्यम श्रेणी फासीवाद और फासीवाद विरोध के बीच की ढुलमुल स्थिति में था और अन्त में, जब बहुत से देशों में मजदूर वर्ग फासीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष को नेतृत्व देने की लगभग एकान्तिक स्थिति में था।


माओ लिखते हैं- "अगर सोवियत संघ अस्तित्व में नहीं होता, अगर फासीवाद विरोधी द्वितीय विश्व-युद्ध में जीत हासिल नहीं होती, अगर जापनी साम्राज्यवाद को शिकस्त नहीं दिया गया होता (जिसका हमारे लिए खास महत्त्व है)- अगर यूरोप में लोक जनवादी राज्यों की स्थापना नहीं होती तब अन्तरराष्ट्रीय प्रतिक्रियावादी ताकतों का दबाव आज से कहीं ज्यादा होता। वैसी परिस्थितियों में क्या हम जीत हासिल कर पाते? बिल्कुल नहीं। और जीत हासिल करने के बाद उसे सुदृढ़ करना भी असम्भव हो जाता।" (जनता के जनवादी अधिनायकत्व के बारे में)


(7) लोक जनवाद की स्थापना ने बड़े पूँजीपति और जमींदार का तख्ता उलट कर एक अर्थ में सत्ता के सवाल का समाधान कर दिया। परन्तु यह सत्ता के सवाल का सम्पूर्ण समाधान नहीं था। लोक जनवाद के आरंभिक काल में, मध्यम पूँजीपति और धनी किसानों को राजनीतिक रूप से पृथक करके पराजित नहीं किया जा सका था और जनता के बहुमत को अपने पक्ष में करने की समस्या को पूरी तरह सुलझाया नहीं गया था। मजदूर वर्ग और किसानों के साथ मध्यम पूँजीपति और धनी किसानों ने भी शासन में भाग लिया था। एक स्वतंत्र, राजनीतिक रूप से संगठित ताकत के रूप में बुर्जुआ वर्ग अस्तित्व में था जिसकी अपनी पार्टी थी, प्रेस था और सरकार, वैधानिक निकायों और राज्य मशीनरी में नुमाइन्दे थे ।


(8) इस तरह लोक जनवादी क्रांति की दो मंजिलें थीं— जनवादी और समाजवादी। मजदूर वर्ग, समस्त किसान वर्ग और सारे माध्यम श्रेणी समेत फासिस्ट - विरोधी मध्यम पूँजीपतियों की राजनीतिक मंत्री के आधार पर फासिस्ट समर्थक पूँजीपति और बड़े जमींदारों के राजनैतिक और आर्थिक आधारों को नष्ट करना प्रारंभिक पहली मंजिल का काम था। इस दौरान, राज्य, के लोक जनवादी ढांचे ने सर्वहारा के अधिनायकत्व के कार्यों का निष्पादन नहीं किया और न ही कर सकता था क्योंकि पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से को भी सत्ता में भागीदारी थी। इस तरह लोक जनवाद सर्वहारा के अधिनायकत्व का पर्याय नहीं था और न हो सकता था और न ही लोक जनवादी गुट और इसके जन-संगठन अपने सभी चरणों में सर्वहारा के अधिनायकत्व का राजनीतिक संगठन हो सकते थे, जैसा कि संशोधनवादियों और छद्य संशोधनवादियों ने प्रचार किया है।


(9) लोक जनवादी शासन ने सर्वहारा के अधिनायकत्व के कार्यों का निष्पादन केवल क्रांति की दूसरी मंजिल में किया। ठीक लेनिन द्वारा प्रवर्तित युद्ध-साम्यवाद की तरह इस दूसरे चरण की शुरुआत इसके परिपक्व होने से पहले, मध्यम पूँजीपति और धनी किसानों का भंडाफोड़ और पृथक्करण के पूरा होने से पहले और मजदूर वर्ग की सत्ता के सुदृढीकरण से पहले ही करनी पड़ी। शक्तिशाली सोवियत संघ के मौजूदगी के बावजूद, मध्यम बुर्जुआ और धनी किसानों ने, पराजित बड़े पूँजीपति और बड़े जमींदार के साथ सांठ-गांठ करके और सोवियत संघ के विरुद्ध शीत और गर्म युद्ध चलाने की आंग्ल-अमरीकी साजिश के उकसावे और उत्प्रेणा पर उच्छेदक कार्रवाई करने का दुस्साहस किया। उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन का अन्तर्ध्वंस किया, एक पर एक प्रतिक्रांतिकारी षडयंत्र रचा और जासूसी और विध्वंसन को संगठित करने में क्रियाशीलता दिखलाई। इस बुजुआ वर्ग को न केवल लोक जनवादी शासन से सहयोग करने की कोई इच्छा नहीं थी बल्कि इसने हमेशा लोक सत्ता को उलटने की कोशिश की। अनुभव यह दिखलाता है कि संयुक्त गुट और सरकारी तंत्र में अपनी भागीदारी के द्वारा मध्यम बुर्जुआ वर्ग ने क्रांति की प्रगति को बाधित करने और अपनी सत्ता को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। मध्यम बुर्जुआ वर्ग और धनी किसानों की पार्टियों का पर्दाफाश करने और उन्हें पृथक कर सरकार और संयुक्त गुट से निष्कासित करने तथा उनकी पूँजी और जमीन को जब्त करने के बाद ही लोक जनवादी शासन सर्वहारा के अधिनायकत्व के कार्यों का निष्पादन कर सकता था। केवल इसी आधार पर सोवियत संघ की सहायता- सामरिक सहायता सहित-से लोक जनवाद उद्योगीकरण और स्वेच्छा के आधार पर कृषि सहकारिता समितियों का गठन करके समाजवाद की बुनियाद रखने के कार्यक्रम की शुरुआत कर सकता था।


लोक जनवादी राज्यों के अनुभव से यह साफ है कि बुर्जुआ वर्ग के एक भाग या निहित स्वार्थों के साथ सत्ता में साझेदारी करके सर्वहारा के अधिनायकत्व को अमल में नहीं लाया जा सकता और बिना सर्वहारा के अधिनायकत्व के समाजवाद की बुनियाद रखना असंभव था।


सर्वहारा अधिनायकत्व के श्रेष्ठ कार्यों को समझे बिना, न तो टीटो मार्क समाजवाद को, न ख्रुश्चेव मार्का आधुनिक संशोधनवाद को और न ही सी० पी० आई० (एम०) के एक व्यापकतर सामाजिक आधार वाले लोक जनवाद की खोखली, अमूर्त और भ्रांतिजनक बातों को समझा जा सकता है।


(10) कुछ देशों में लोक जनवाद की जीत नहीं हुई हाँलाकि इन देशों की आन्तरिक स्थिति इसके लिए काफी अनुकुल थी। यूनान, फ्रांस, इटली और बेल्जियम की आन्तरिक स्थिति लोक जनवाद की स्थापना के लिए परिपक्व थी, लेकिन आंग्ल-अमरीकी हस्तक्षेप के कारण उन देशों के देशी पूँजीपति वर्ग को अपनी प्रमुख स्थिति बरकरार रखने में कामयाबी मिली। आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अल्वानिया और बुल्गारिया में अपनी सेना उतारने की कोशिश की और चेको- स्लोवाकिया, हंगरी तथा पोलैंड में घुसने और वहाँ सोवियत सेना से पहले पहुँचने की कोशिश की। अगर इन देशों में ब्रिटिश और अमरीकी फौजें सोवियत सेना से पहले प्रवेश कर पाती तो वे लोक जनवाद की जीत को रोकने का भरसक प्रयास करतीं।


(11) सामूहिक शत्रु- फासीवाद के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष के सामूहिक मोर्चा द्वारा फासीवाद के पराजय के परिणामस्वरूप लोक जनवाद की जीत हुई । स्वाभाविक तौर पर फासीवाद विरोध और लोक जनवादी क्रांति की पहली मंजिल का सामाजिक आधार अधिक व्यापक था जो कि इसकी दूसरी मंजिल के लिए सही नहीं था।


(12) इस बात पर गम्भीरतापूर्वक गौर करना चाहिए कि 1953 में सर्वहारा के अधिनायकत्व का अधःपतन इसका टीटोवादी विरूपण और एक समाजवादी देश के रूप में युगोस्लाविया की मान्यता (हाँलाकि वहाँ दूसरी मंजिल का कोई कार्य पूरा नहीं किया गया था) के बाद समाजवादी खेमा और लोक जनवाद का अधःपतन शुरू हुआ।


(13) आज फासीवाद के तरह न तो कोई सामूहिक शत्रु है और न ही कोई सामूहिक मोर्चा। कोई समाजवादी देश (जिसका विश्व राजनीति पर निर्णायक प्रभाव हो) नहीं है जिसकी छत्रछाया में लोक जनवाद दूसरी मंजिल तक विकास कर सके। सच्चे कम्युनिस्टों को समझना चाहिए कि इन उपर्युक्त परिस्थितियों के अभाव में और साम्राज्यवाद, भ्रामक बुर्जुआ जनवाद और निजी सम्पत्ति के 'अधिकार' के अत्योद्घोषित स्वच्छंद उपभोग के चरम दिनों में, यदि एक दृढ़ और कृत संकल्प सर्वहारा नीति का अनुसरण नहीं किया गया और यदि विजयी सर्वहारा वर्ग ने धनी किसानों और गैर बड़े पूँजीपतियों से सख्ती से नहीं निपटा, तो क्रांति का उद्देश्य गम्भीर रूप से खतरे में पड़ जायेगा। (ऐसी नीति के बिना न तो आधिपत्य जमाना सम्भव है और न ही गैर-सर्वहारा मेहनतकश जनता, जो पहले से ही मुनाफाखोरी और मालिकाना आदतों का शिकार हैं, के ढुलमुलपन को रोका जा सकता है।)


(14) क्रांति की मंजिल पर हमारे मुख्य लेख से यह स्पष्ट कि आज के भारत में केवल समाजवादी क्रांति ही साम्राज्यवाद विरोध और सामंती अवशेषों को उखाड़ फेंकने के कार्यों को पूरा कर सकती है।

सर्वहारा पथ, 1991 से साभार

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